Saturday 30 November 2013

पंछी का ज्ञान

पेड़ की टहनी पर बैठे उस पंछी को देख,
लिखना शुरू किया मैंने यह लेख।

आगे क्या आएगा, कहाँ पता है मुझें?
बीते लम्हों के दीए भी हैं अब जैसे बुझे।
तो आज की रौशनी से पढ़ने लगा मैं,
क्या उस पंछी के पंखों पर लिखा है।

एक कहानी ऐसी लिखी थी,
जो न कभी मैंने थी पढ़ी।

एक एक शब्द जैसे एक हीरे के समान,
हीरों के हार का फिर भी न मिला उसे सम्मान।
बस उस पंछी के पंखों में छिपी,
वह कहानी आज भी अनकही।

जानता हूँ आप भी उत्सुक्त हैं जानने के लिए,
कि उस पंछी के पंखों ने मुझे क्या ज्ञान दिए।
पर अफ़सोस कि वह राज़ मैं बता न पाउँगा,
अरे कहाँ से वह शब्द लाऊंगा?
जब तक मैं लिख पाता उस रहस्य को,
वह पंछी उड़ गया आकाश की ओर।

आज भी मैं ठीक उस समय,
बैठा पाउँगा उस पेड़ तले,
कागज़ और कलम हाथ में लिए,
उस पंछी के इंतज़ार में आज भी जिए। 

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