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Tuesday, 25 February 2014

नज़रो की कहानी

उनकी और हमारे नैन कुछ ऐसे मिले,
जैसे बंजर ज़मीन पर फूल हो खिले। 
कुछ उनकी नज़रो ने कहना चाहा,
और कुछ हमने सुनना चाहा।

क्या जाने की वह भी वाही सोच रहे थे,
जो हम चाहते थे वह हमसे कहें?
क्या वही दास्तान वह अपने मनन में लिख रहे थे,
जिसके हज़ारों पन्ने एक नज़र में हमने लिख दीये?

इस सोच में हम तब तक खोये रहे,
जब तक वह हमारी आँखों से ओझल  न हो गए।  

हमें लगा कि शायद यह एक शुरुआत है,
एक इशारा, जो ऊपरवाले की सौगात है। 

पर कहानी तो तभी ख़त्म हो गयी थी, 
जब उन्होंने अपनी आँखों पर चश्मे का पर्दा डाल लिया।